कई साल पुराना वाकया है मैं अमिताभ कुमार जी से मिलने उनके कार्यालय गया। इनके कमरे में सोफा भी पड़ा था। मेरे कमरे में घुसते ही ये अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुये और उसके दायरे से बाहर आकर सोफे की सरहदों में दाखिल हो गये। दुआ सलाम हुयी और अमिताभ जी बोले भइया तशरीफ़ रखिये ।और पूरे लखनवी मेहमान नवाजी के अंदाज़ में दोनो हाथ सोफे की तरफ किये। जब तक हम तशरीफ़ फरमा नही हुये ये खुद भी अपने दोनों शरीफ पैरों को जहमत दिये रहे।
हमको उसी समय खटका हो गया था कि ये जनाब तो लखनऊ को जी रहे हैं। इतना बड़ा अफसर होकर भी जो मुझ जैसे अदना अदीब को इतना मान दे रहा है इसके भीतर तो लखनऊ जैसे धड़क रहा है। गोया ये खुद ही लखनऊ की जीती जागती तस्वीर हों।
एक ज़हीन लेखक और नावेल निगार अमिताभ कुमार के ज़हन में लखनऊ अठखेलियाँ करता रहता था ये बिल्कुल सच है वो रोशनाई से हुरूफ़ बनकर निकलने को कुलबुला भी रहा था लेकिन साथ ही इनके भीतर कुछ और किताबें भी इनको साहिबे नॉविल बनाने को बिल्कुल तैयार ही नहीं आमादा थीं तो इस किताब ने 'शहर ए अदब' की शक्ल अख्तियार कर उनसे कहा पहले आप अरे पहले आप..।
नतीजा हम सबके रूबरू है। लखनऊ अपनी पूरी नाज़ो अदा के साथ शाइस्ता ज़ुबान में किताब की शक्ल में हमे दस्तयाब हो गया है। अमिताभ जी अंदाज़ ए बयाँ बहुत दिलकश और बा रवानी है। इस किताब के सुनहरे मुस्तकबिल की दुआ करता हूँ और प्रिय भाई अमिताभ जी को मुबारकवाद इसलिए देता हूँ कि इन्होंने उस शहर के बारे में किताब लिखी जिसका नाम लेने भर से शराफत झलक उठती है। यकीनन लखनवी तहज़ीब अपनाने की ज़रूरत आज पूरी दुनिया को है और उसे पहुंचाने का जरिया सिर्फ किताब है।
यह भूमिका लिखते समय सोच रहा हूं कि अमिताभ कुमार के किस रूप की चर्चा मैं करूँ.. छात्र राजनीति में अति सक्रिय और सजग विद्यार्थी के रूप में अथवा अध्ययन के लिए सदा समर्पित मेधावी छात्र के रूप में, रेल अधिकारी की उनकी व्यस्त नौकरी के लिए या फिर एक ऐसे लेखक के तौर पर उन्हें सराहा जाए जो कभी थकता नहीं और लगातार नये विषयों की तलाश में भटका करता है..उनकी सृजन यात्रा और नया रचने की क्षमता पेशेवर लेखकों के लिए भी विस्मयकारी है..
अमिताभ कुमार को मैं लगभग साढ़े तीन दशकों से जानता हूं और कह सकता हूं कि वो चकित करते हैँ..यह क्षमता उनमें भरपूर है..उत्साही हैँ, पढ़ते हैँ और परिश्रमी तो हैँ ही तो इस बार उनकी कलम शहरों में शहर लखनऊ की गहन पड़ताल में निकली है..
लखनऊ पर बहुत किताबें हैँ.. इतनी कि अकेले उनसे एक बड़ी लाइब्रेरी बन जाए तो अब नई किताब लखनऊ : शहर -ए - अदब क्यों..उत्तर खुद यह किताब है जिसमें लखनऊ के हर पक्ष को बड़ी ख़ूबसूरती से उभारा गया है..अमिताभ कुमार जिस सलीके से कथक की बात करते हैँ, उतना ही डूबकर लखनऊ के दुनिया भर में मशहूर ज़ायके का सफ़र भी पाठक को करा लाते हैँ और उतनी ही गहराई से लखनऊ के स्थापत्य की बारीकी भी बता जाते हैँ..
निश्चय ही यह पुस्तक लखनऊ से प्यार करने वालों के लिए एक उपहार सिद्ध होगी.. अमिताभ कुमार को बहुत शुभकामनायें..उनके भीतर का लेखक चलता रहे, रचता रहे.